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‘दरिन्द्रे’ डाॅ. एम.के. मजूमदार द्वारा लघुकथा संग्रह में से एक है। इनकी लघुकथाएं देश के विभिन्न पत्रिकाओं और पेपर में प्रकाशित हो चुकी है। कल और आज के परिवेश में काफी बदलाव आया है। हो सकता है कुछ लघुकथाएं वर्तमान समय में अटपटी लगे पर अनेक लघुकथाएं आज के सदंर्भ में भी उतनी ही सटीक बैठती हैं। लघुकथा के परिवेश और काल को समझने के लिए प्रत्येक लघुकथा के लेखन के वर्ष को भी दर्शाया गया है जिससे पाठक उस काल को ध्यान में रखकर लघुकथा की गहराई को महसूस कर सकें। आप भी इन्हें पढ़े और अपने विचार कमेंट बाॅक्स में जरूर लिखें।




दरिन्द्रें 


 ‘‘बचाओ ..... बचाओ’’ की आवाज़ सुनकर दोनों आवाज़ की दिशा में दौड़ पड़ें। थोड़ी देर में दोनों ने वह जगह तलाश कर ली। जहां से चीख आ रही थी। नजदीक पहुंच कर दोनों ने युवक का कालर पकड़ कर युवती से अलग किया और लात-घूंसो के साथ गालियों की बौछार लगा दी।

 इस बीच वह युवती अपने कपड़े ठीक करने लगी।

 अन्त में एक जोरदार तमाचा जड़ते हुए एक ने कहा, ‘‘जितनी जल्दी हो सकें यहां से दफा हो जा।’’

बात खत्म होते ही दूसरा बोल पड़ा, ‘‘यह हमारा मोहल्ला है। यहां कि लड़कियों पर हमारा अधिकार है।’’

ठहाके की गूंज के साथ दोनों युवती पर झपट पड़े।

वह सोचने लगी। इंसान की खाल में सभी दरिन्द्रे है। ..........More  (1991)



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